गीता प्रेस, गोरखपुर >> गुरु और माता-पिता भक्त बालक गुरु और माता-पिता भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रस्तुत है गुरु और माता पिता भक्त बालक.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
इस छोटी-सी पुस्तिका में गुरु तथा माता-पिता के भक्त कुछ बालक-बालिकाओं का
संक्षिप्त परिचय दिया गया है। गुरु तथा माता-पिताकी सेवा-भक्ति भारतीय
संस्कृति का तो प्रधान अंग है ही, विदेशों में भी इसको बहुत उत्तम गुण
माना गया है। इस पुस्तिका में ऐसे बालकों के त्याग, आत्मबलिदान तथा सेवा
की पवित्र भावनाएँ भरी हैं, इनमें से अधिकांश ‘कल्याण’ में
प्रकाशित हो चुकी हैं। आशा है, इनसे हमारे बालक तथा उनके अभिभावक भी लाभ
उठावेंगे।
निवेदक
हनुमान प्रसाद पोद्दार
हनुमान प्रसाद पोद्दार
गुरु और माता-पिताके भक्त बालक
गुरुभक्ति बालक आरुणि
महर्षि आयोदधौम्यके तीन शिष्य बहुत प्रसिद्ध हैं—आरुणि, उपमन्यु और
वेद। इनमेंसे आरुणि अपने गुरुदेव के सबसे प्रिय शिष्य थे और सबसे पहले सब
विद्या पाकर यही गुरुके आश्रमके समान दूसरा आश्रम बनाने में सफल हुए थे।
आरुणि को गुरुकी कृपा से सब वेद, शास्त्र, पुराण आदि बिना पढ़े ही आ गये
थे। सच्ची बात यही है कि जो विद्या गुरुदेव की सेवा और कृपा से आती है;
वही विद्या सफल होती है। उसी विद्या से जीवन का सुधार और दूसरों का भी भला
होता है। जो विद्या गुरुदेवकी सेवाकी बिना पुस्तकों को पढ़कर आ जाती है,
वह अहंकार को बढ़ा देती है। उस विद्याका ठीक-ठीक उपयोग नहीं हो पाता।
महर्षि आयोदधौम्य के आश्रम में बहुत-से शिष्य थे। वे सब अपने गुरुदेव की बड़े प्रेम से सेवा किया करते थे। एक दिन शामके समय वर्षा होने लगी। वर्षाकी ऋतु बीत गयी थी। आगे भी वर्षा होगी या नहीं, इसका कुछ ठीक-ठिकाना नहीं था। वर्षा बहुत जोरसे हो रही थी। महर्षिने सोचा कि कहीं अपने धान के खेत की मेड़ अधिक पानी भरने से टूट जायगी तो खेतमें से सब पानी बह जायगा। पीछे फिर वर्षा न हो तो धान बिना पानी के सूख ही जायँगे। उन्होंने आरुणि से कहा—‘बेटा आरुणि ! तुम खेतपर जाओ और देखो, कही मेड़ टूटनेसे खेत का पानी निकल न जाय।’
अपने गुरुदेव की आज्ञासे आरुणि उस समय वर्षा में भीगते हुए खेतपर चले गये। वहाँ जाकर उन्हेंने देखा कि धानके खेतकी मेड़ पर एक स्थान पर टूट गयी है और वहाँ से बड़े जोरसे पानी बाहर जा रहा है। आरुणिने वहाँ मिट्टी रखकर मेड़ बाँधना चाहा। पानी वेगसे निकल रहा था और वर्षा से मिट्टी गीली हो गयी थी, इसलिये आरुणि जितनी मिट्टी मेड़ बाँधनेको रखते थे, उसे पानी बहा ले जाता था। बहुत देर परिश्रम करके भी जब आरुणि मेड़ न बाँध सका तो वे उस टूटी मेड़के पास स्वयं लेट गये। उनके शरीरसे पानीका बहाव रुक गया।
रातभर आरुणि पानीभरे खेतमें मेड़से सटे पड़े रहे। सर्दी से उनका सारा शरीर अकड़ गया, लेकिन गुरुदेव के खेतका पानी बहने न पावे, इस विचार से वे न तो तनिक भी हिले और न उन्होंने करवट बदली। शरीरमें भयंकर पीड़ा होते रहने पर भी वे चुपचाप पड़े रहे।
सबेरा होने पर संध्या और हवन करके सब विद्यार्थी गुरुदेव को प्रणाम करते थे। महर्षि आयोदधौम्यने देखा कि आज सबेरे आरुणि प्रणाम करने नहीं आया। महर्षिने दूसरे विद्यार्थियोंसे पूछा—‘आरुणि कहाँ है ?’
विद्यार्थियों ने कहा—‘कल शामको आपने आरुणि को खेतकी मेड़ बाँधनेको भेजा था, तबसे वह लौटकर नहीं आया।’
महर्षि उसी समय दूसरे विद्यर्थियों को साथ लेकर आरुणि को ढूँढ़ने निकल पड़े। उन्होंने खेत पर जाकर आरुणि को पुकारा। आरुणि से ठण्ड के मारे बोला तक नहीं जाता था। उन्होंने किसी प्रकार अपने गुरुदेवकी पुकार का उत्तर दिया। महर्षि ने वहाँ पहुँचकर उस आज्ञाकारी शिष्यको उठाकर हृदय से लगा लिया, आशीर्वाद दिया—‘पुत्र आरुणि ! तुम्हें सब विद्याएँ अपने-आप ही आ जायँ।’ गुरुदेव के आशीर्वाद से आरुणि बड़े भारी विद्वान हो गए।
महर्षि आयोदधौम्य के आश्रम में बहुत-से शिष्य थे। वे सब अपने गुरुदेव की बड़े प्रेम से सेवा किया करते थे। एक दिन शामके समय वर्षा होने लगी। वर्षाकी ऋतु बीत गयी थी। आगे भी वर्षा होगी या नहीं, इसका कुछ ठीक-ठिकाना नहीं था। वर्षा बहुत जोरसे हो रही थी। महर्षिने सोचा कि कहीं अपने धान के खेत की मेड़ अधिक पानी भरने से टूट जायगी तो खेतमें से सब पानी बह जायगा। पीछे फिर वर्षा न हो तो धान बिना पानी के सूख ही जायँगे। उन्होंने आरुणि से कहा—‘बेटा आरुणि ! तुम खेतपर जाओ और देखो, कही मेड़ टूटनेसे खेत का पानी निकल न जाय।’
अपने गुरुदेव की आज्ञासे आरुणि उस समय वर्षा में भीगते हुए खेतपर चले गये। वहाँ जाकर उन्हेंने देखा कि धानके खेतकी मेड़ पर एक स्थान पर टूट गयी है और वहाँ से बड़े जोरसे पानी बाहर जा रहा है। आरुणिने वहाँ मिट्टी रखकर मेड़ बाँधना चाहा। पानी वेगसे निकल रहा था और वर्षा से मिट्टी गीली हो गयी थी, इसलिये आरुणि जितनी मिट्टी मेड़ बाँधनेको रखते थे, उसे पानी बहा ले जाता था। बहुत देर परिश्रम करके भी जब आरुणि मेड़ न बाँध सका तो वे उस टूटी मेड़के पास स्वयं लेट गये। उनके शरीरसे पानीका बहाव रुक गया।
रातभर आरुणि पानीभरे खेतमें मेड़से सटे पड़े रहे। सर्दी से उनका सारा शरीर अकड़ गया, लेकिन गुरुदेव के खेतका पानी बहने न पावे, इस विचार से वे न तो तनिक भी हिले और न उन्होंने करवट बदली। शरीरमें भयंकर पीड़ा होते रहने पर भी वे चुपचाप पड़े रहे।
सबेरा होने पर संध्या और हवन करके सब विद्यार्थी गुरुदेव को प्रणाम करते थे। महर्षि आयोदधौम्यने देखा कि आज सबेरे आरुणि प्रणाम करने नहीं आया। महर्षिने दूसरे विद्यार्थियोंसे पूछा—‘आरुणि कहाँ है ?’
विद्यार्थियों ने कहा—‘कल शामको आपने आरुणि को खेतकी मेड़ बाँधनेको भेजा था, तबसे वह लौटकर नहीं आया।’
महर्षि उसी समय दूसरे विद्यर्थियों को साथ लेकर आरुणि को ढूँढ़ने निकल पड़े। उन्होंने खेत पर जाकर आरुणि को पुकारा। आरुणि से ठण्ड के मारे बोला तक नहीं जाता था। उन्होंने किसी प्रकार अपने गुरुदेवकी पुकार का उत्तर दिया। महर्षि ने वहाँ पहुँचकर उस आज्ञाकारी शिष्यको उठाकर हृदय से लगा लिया, आशीर्वाद दिया—‘पुत्र आरुणि ! तुम्हें सब विद्याएँ अपने-आप ही आ जायँ।’ गुरुदेव के आशीर्वाद से आरुणि बड़े भारी विद्वान हो गए।
गुरुभक्त बालक उपमन्यु
महर्षि आयोदधौम्य अपनी विद्या, तपस्या और विचित्र उदारताके लिये बहुत
प्रसिद्ध हैं। वे ऊपरसे तो अपने शिष्यों से बहुत कठोरता करते प्रतीत होते
थे; किंतु भीतरसे शिष्योंपर उनका अपार स्नेह था। वे अपने शिष्यों को
अत्यन्त सुयोग्य बनाना चाहते थे। इसलिये जो ज्ञानके सच्चे जिज्ञासु थे, वे
महर्षि के पास बड़ी श्रद्धा से रहते थे। महर्षि शिष्योंमें से एक बालक का
नाम था उपमन्यु। गुरुदेव ने उपमन्यु को अपनी गायें चराने का काम दे रखा
था। वे दिनभर वन में गायें चराते और सायंकाल आश्रम में लौट आया करते। एक
दिन गुरुदेव ने पूछा—‘बेटा उपमन्यु ! तुम आजकल भोजन
क्या करते
हो ?
उपमन्यु ने नम्रता से कहा—‘भगवान् ! मैं भिक्षा माँगकर अपना काम चला लेता हूँ।
महर्षि बोले —वत्स ! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षाका अन्न नहीं खाना चाहिये। भिक्षा माँगकर जो कुछ मिले, उसे गुरुके सामने रख देना चाहिये। उसीमेंसे गुरु यदि कुछ दे दें तो उसे ग्रहण करना चाहिये।’
उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वे भिक्षा माँगकर जो कुछ मिलता उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देते। गुरुदेव को तो शिष्य की श्रद्धा को दृढ़ करना था, अतः वे सब भिक्षाका अन्न रख लेते। उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते। थोड़े दिनों पीछे जब गुरुदेवने पूछा—‘उपमन्यु ! तुम आजकल क्या खाते हो ?’ तब उपमन्यु ने बताया कि ‘मैं एक बार की भिक्षा का अन्न गुरुदेव को देकर दुबारा अपने लिये भिक्षा माँग लाता हूँ।’ महर्षि ने कहा—‘दुबारा भिक्षा माँगना तो धर्मके विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा माँगनेवालों को भी संकोच होगा। अब तुम दूसरी बार भिक्षा माँगने मत जाया करो।’
उपमन्यु ने कहा—‘जो आज्ञा !’ उसने दूसरी बार भिक्षा माँगना बन्द कर दिया। जब कुछ दिनों बाद महर्षिने फिर पूछा, तब उपमन्यु ने बताया कि ‘मैं गायोंका दूध पी लेता हूँ।’
महर्षि बोले—‘यह तो ठीक नहीं। गायें जिसकी होती हैं उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायोंका दूध तुम्हें नहीं पीना चाहिये।’
उपमन्यु ने नम्रता से कहा—‘भगवान् ! मैं भिक्षा माँगकर अपना काम चला लेता हूँ।
महर्षि बोले —वत्स ! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षाका अन्न नहीं खाना चाहिये। भिक्षा माँगकर जो कुछ मिले, उसे गुरुके सामने रख देना चाहिये। उसीमेंसे गुरु यदि कुछ दे दें तो उसे ग्रहण करना चाहिये।’
उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वे भिक्षा माँगकर जो कुछ मिलता उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देते। गुरुदेव को तो शिष्य की श्रद्धा को दृढ़ करना था, अतः वे सब भिक्षाका अन्न रख लेते। उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते। थोड़े दिनों पीछे जब गुरुदेवने पूछा—‘उपमन्यु ! तुम आजकल क्या खाते हो ?’ तब उपमन्यु ने बताया कि ‘मैं एक बार की भिक्षा का अन्न गुरुदेव को देकर दुबारा अपने लिये भिक्षा माँग लाता हूँ।’ महर्षि ने कहा—‘दुबारा भिक्षा माँगना तो धर्मके विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा माँगनेवालों को भी संकोच होगा। अब तुम दूसरी बार भिक्षा माँगने मत जाया करो।’
उपमन्यु ने कहा—‘जो आज्ञा !’ उसने दूसरी बार भिक्षा माँगना बन्द कर दिया। जब कुछ दिनों बाद महर्षिने फिर पूछा, तब उपमन्यु ने बताया कि ‘मैं गायोंका दूध पी लेता हूँ।’
महर्षि बोले—‘यह तो ठीक नहीं। गायें जिसकी होती हैं उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायोंका दूध तुम्हें नहीं पीना चाहिये।’
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